यूँ तो मैं आर्य समाज से बचपन से ही जुड़ा जब मैं केवल 5 वर्ष का था । तब से लेकर आज तक लगभग 35 वर्ष गुजर चुके हैं। मैंने इन 35 वर्षों में आर्य समाज के बारे में बहुत कुछ पढ़ा और समझा और जाना। कई साहित्य पढ़े और कई उच्च विद्वानों के भी संपर्क में रहा और आर्य समाज की गतिविधियों को भी देखा और जाना। जब से सोशल मीडिया का आगमन हुआ तब से पुरे विश्व के गतिविधियों की भी जानकारी होती रही। मैंने आर्य समाज के कार्यों की गतिविधियो को बहुत ही निकट से देखता रहा और इसके प्रचार प्रसार को देख कर यही विचार बन चूका था कि अब आर्य समाज एक उदासीन संगठन बन चूका है और इसका अब कुछ नहीं सकता । कुछ तथाकथित पदाधिकारी और विद्वानों ने इस संगठन पर कब्ज़ा करके हम जैसो ऋषि भक्तों को यह दिलासा दिलाते रहे कि आर्य समाज का कार्य बहुत ही अच्छे तरीके से हो रहा है लेकिन हमारी गतिविधियाँ केवल एक वार्षिकोत्सव और श्रावणी तक सीमित हो गया । आम जन तक आर्य समाज की पहुँच कम होती गयी और उद्देश्य केवल पदाधिकारी बनने तक रह गया । पदाधिकारी बन कर आर्य समाजों पर कब्ज़ा और अपनी दुकानदारी चलाना उद्देश्य बन गया। संसार का उपकार नहीं अपना उपकार मुख्य उद्देश्य हो गया । सबकी उन्नति नहीं अपनी उन्नति उद्देश्य हो गया। क्या हम ऋषि दयानंद के त्याग को भूल गए स्वामी श्रद्धानंद के बलिदान को भूल गए । इन सब के बीच मुझे सिर्फ यही संतोष होता था कि और कोई नहीं तो मैं तो हूँ ऋषि का भक्त। आर्य समाज के कार्यो को देखता रहा और विद्वानों को सुनता रहा जो केवल उपदेश तो देते रहे । कालान्तर में परमदेव जी मीमांसक द्वारा गठित “आर्य निर्मात्री सभा” के गतिविधियों के बारे में सुनना प्रारम्भ किया। निर्मात्री सभा के बारे में कुछ सकारात्मक तो कुछ नकारात्मक बातें सुनने लगा। सोचता था कि कौन गलत है और कौन सही? मेरे कुछ अग्रज केवल हमें नकारात्मक बातें बताते रहे जिस कारण मन में निर्मात्री सभा की गलत छवि बनती गयी। यूँ तो आचार्य परमदेव जी से मेरी पुरानी पहचान थी जब वो हमारे आर्य समाज में व्याकरण और मीमांसा पढने आये और हमारे बीच लगभग एक वर्ष रहे। उसी समय उनके विचारों से हमें लग गया था उनके विचार सबसे अलग हैं। बनारस और आसपास लगने वाले सत्र से मैं अपने को दूर ही रखा और यही सोचता रहा कि आर्य समाज का कार्य केवल वार्षिकोत्सव करना ही है । फिर चर्चा चली बनारस में लगने वाले 500 लोगों के महा सत्र की। श्री अशोक त्रिपाठी जी जो हमारे अग्रज भी है उन्होंने मुझे महा सत्र के लिए प्रेरित किया और मैंने कार्य करना प्रारम्भ किया। लगभग एक महीने के कार्य के बाद महा सत्र में भाग लिया और मैंने कई विषयों पर आचार्य परमदेव जी,आचार्य हनुमत प्रसाद जी, और अन्य आचार्यों से बातें की। महासत्र के बाद मैंने सिर्फ यही निष्कर्ष निकाला कि मेरी सोच निर्मात्री सभा के प्रति गलत थी और ऋषि दयानंद के सिद्धांतों को जन जन तक पहुँचाने में पूरी तरह सफल रहे। पुरे पूर्वांचल में आर्य सिद्धांतों के प्रति एक क्रांति आ चुकी है। रही बात निर्मात्री सभा के विरोध की तो उनका विरोध वही लोग कर रहें है जो पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं और उनको अपनी दुकानदारी सिमटती लग रही है । मेरा सबसे सिर्फ यही कहना है कि आर्यों आओ और ऋषि दयानंद के विचारों को जन जन पहुँचाने के लिए पूर्वाग्रह छोड़ें ।
संतोष आर्य – मंत्री आर्य समाज लल्लापुरा वाराणसी।। 9838532696/9648865704