yog

।। ओम् ।।

।। अथ उपासना ।।

गृह में अथवा बाहर भी एकान्त, रुचिकर, उपद्रवरहित, वायु के आवागमन से युक्त स्थान में कुश, कम्बल आदि का आसन बिछाकर पद्मासन/ अर्द्धपद्मासन/ स्वस्तिकासन/जिसमें सुख पूर्वक दीर्घ काल तक बैठा जा सके, बैठें। इसमें रीढ़ की हड्डी एवं गर्दन सीधी रखें, दृष्टि सामने रहे परन्तु आँखे बन्द रखें, शरीर से हिलना—डुलना न हो, हाथ को घुटनों पर व्यवस्थित रखें।

तत्र स्थिरसुखमासनम्।। यो0द0 १/२/४६।।

ओ३म् । विश्वानि देव० मन्त्र का अर्थ सहित मानसिक उच्चारण करें।

।। विवेक—वैराग्य ।।

संसार, शरीर एवं मृत्यु की यथार्थता के परिज्ञान हेतु इनके स्वरूप का यथार्थ चिन्तन करें, परिकल्पना नहीं।

संसार एवं शरीर आदि की परिवर्तनशीलता एवं नश्वरता का चिन्तन करते हुए संसार एवं शरीर आदि से आसक्ति को न्यून करें। अपरिवर्तनीय तथा अविनाशी तत्व का चिन्तन करते हुए उसकी प्राप्ति हेतु उपाय करें—

उपाय है = अष्टांग योग का परिपालन— यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि।

यम एवं नियम के परिपालन का स्वनिरीक्षण करें—

।। यम ।।

अहिंसा = अकारण शरीर, वाणी और मन से किसी प्राणी को दुःख तो नहीं दिया, यदि हिंसा हुई है तो क्यों एवं आगे कैसे रोकूँ, इसका चिन्तन तथा अहिंसा हेतु संकल्प।

सत्य— जैसा हमारे परीक्षित ज्ञान में है, वैसा ही मनन एवं कथन हुआ है अथवा नहीं?

अस्तेय — किसी पर पदार्थ को मन से भी लेने की इच्छा तो नहीं हुई?

ब्रह्मचर्य — वीर्यनिग्रही रहे? भौतिकवादी एवं भोगवादी व्यापक प्रवृत्ति भरे वातावरण में मन से भी विकार तो नहीं उत्पन्न हुआ?

अपरिग्रह — आवश्यकता से अधिक संसाधनों को इकट्ठा तो नहीं किया?

।। नियम ।।

शौच — आभ्यन्तर शौच — छल, कपट, ईर्ष्या आदि अवगुण तो नहीं घर किए हुए हैं ?       इनके शुद्धि हेतु त्याग, उदारता, विद्याभ्यास, सत्यभाषण एवं धर्माचरण आदि शुभगुण धारण किए हैं अथवा नहीं, यदि नहीं तो शुभगुण के धारण हेतु संकल्प तथा धर्माचरण की दृढ़ता

बाह्यशौच — जल आदि से शरीर, वस्त्र, घर, मार्ग एवं अन्नादि को शुद्ध रखा अथवा नहीं?

सन्तोष — धर्मानुष्ठान से अत्यन्त पुरुषार्थ करके प्रसन्न रहा वा नहीं? कहीं आलस्य तो नहीं किया, कहीं दुःख में शोकातुर हो अधीर तो नहीं हुए?

तप — धर्माचरण एवं शुभ गुणों के आचरण में अर्थात् योग आदि साधनों के करने में द्वन्द्वों — सुख—दुःख, सर्दी—गर्मी, मान—अपमान को सहन किया वा नहीं? कहीं कष्ट के भय से योगाभ्यास को छोड़ने की इच्छा तो नहीं होती है?

स्वाध्याय — मोक्षविद्याविधायक वेद शास्त्र को पढ़ा / सुना अथवा नहीं?

ईश्वर प्रणिधान — सब गुण, प्राण, आत्मा और मन के प्रेमभाव से आत्मादि सत्य द्रव्यों का ईश्वर को समर्पण किया वा नहीं? कहीं संशय तो नहीं? कहीं समर्पण शाब्दिक तो नहीं? यदि समर्पण किया है तो न्यासी बन कहीं उसकी आज्ञा का उल्लंघन तो नहीं किया? पालन ही तो हो रहा है।

इन यम—नियमों के यथार्थस्वरूप का ज्ञान तथा परिपालन का स्वनिरीक्षण करें एवं पुनः दृढ़ता से परिपालन का संकल्प रखें।

पश्चात् प्राणायाम करें—

स तु बाह्याभ्यन्तरस्तम्भवृत्तिर्देशकालसंख्याभिः परिदृष्टो दीर्घसूक्ष्मः ।। यो० द० १/२/५०।। 

प्रथम प्राणायाम बाह्य प्राणायाम कहलाता है।

विधि—इसमें श्वास को तीव्रता परन्तु अधिकार के साथ बाहर निकालकर यथासामर्थ्य रोकें, घबराहट होने पर धीरे—धीरे भीतर लेकर पुनः इसी तरह करें।

निर्देश—इन प्राणायामों में नासिका को हाथ से कभी न पकड़ें, कोई जप नहीं करना है, कोई बन्धादि नहीं लगाने हैं, शरीर को स्थिर रखना है।

द्वितीय प्राणायाम आभ्यन्तर प्राणायाम कहलाता है।

विधि—इसमें श्वास को धीरे—धीरे भीतर लेकर फेफड़ों को भर लेवें और रोक दें, घबराहट होने पर पूर्व की भाँति बाहर निकाल कर पुनः भीतर लेकर रोकें। नासिका आदि को पूर्व की भाँति ही हाथ से न पकडें।

तृतीय स्तम्भवृत्ति प्राणायाम है।

विधि—श्वास—प्रश्वास को देखते हुए इच्छाशक्ति से इसको अचानक रोक दो और घबराहट होने पर छोड़ दो। इसमें श्वास—प्रश्वास को इच्छाशक्ति से जहाँ का तहाँ एकदम रोक देना होता है।

।। प्रत्याहार ।।

स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्य स्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः। यो0 द0 २/५४

मन जड़ है, इन्द्रियाँ जड़ हैं, चित्त जड़ है, आत्मा चेतन है, मन आदि इसके साधन हैं, आत्मा मन को इन्द्रियों के साथ लगाकर वस्तुओं को ग्रहण करता है, पुनः मन जब चित्त के साथ संलग्न होता है तो उस वस्तु का परिबोध आत्मा को होता है। मन जब इन्द्रियों के साथ न संलग्न होकर चित्त के साथ संलग्न रहता है तब प्रत्याहार की स्थिति होती है।

।। धारणा—ध्यान—समाधि ।।

देशबन्धश्चित्तस्य धारणा।। (यो०द० ३/१)

तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्।। (यो० ३/२)

तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः (यो० ३/३)

अथा यदिदस्मिन् ब्रह्मपुरे दहरं पुण्डरीकं वेश्म दहरोऽस्मिन्नन्तराकाशस्तस्मिन् यदन्तस्तदन्वेष्टव्ये तद्वाव विजिज्ञासितव्यमिति।।

छान्दोग्योपनिषद० प्रपा० ८/मं० ३।।

कण्ठ के नीचे दोनों स्तनों के बीच में एवं उदर के ऊपर जो हृदय प्रदेश है जिसको ब्रह्मपुर अर्थात् परमेश्वर का नगर कहते हैं, उसके बीच में जो गर्त है, उसमें कमल के आकार वेश्म अर्थात् अवकाश रूप एक स्थान है और उसके बीच में जो सर्वशक्तिमान् परमात्मा बाहर—भीतर एकरस होकर भर रहा है, वह आनन्द स्वरूप परमेश्वर उसी प्रकाशित स्थान के बीच में खोज करने से मिल जाता है। मन को इसी ब्रह्मपुर में स्थिर करके उस परमात्मा जिसका नाम ओम् है जप करो अर्थात् ओम् का मानसिक उच्चारण पुनः इसके अर्थ का चिन्तन अर्थात् वह सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापक, निराकार, चेतन, ज्ञान एवं आनन्द स्वरूप है, इसका चिन्तन करना, तदनन्तर उसकी भावना अर्थात् वह मेरे भीतर—बाहर—ऊपर—नीचे—दांये—बांये सभी तरफ ज्ञान एवं आनन्दस्वरूप चेतन सत्ता है ऐसा मानना, अनुभव करने का प्रयत्न करना और अपने को उसके भीतर समाहित कर देना, मन  को पुनः—पुनः उसी स्थान में लगाकर उस ईश्वर के नाम ओम् का उच्चारण, उसके अर्थ का चिन्तन एवं उसकी भावना करना और अपने को उसके भीतर समाहित करने का पूर्ण प्रयत्न करना चाहिए।

मन को जब हम पुनः—पुनः हृदय प्रदेश में स्थिर कर ओ३म् का उच्चारण, अर्थ का चिन्तन एवं उसकी भावना करते हैं तो धारणा, जब मन को पुनः—पुनः नहीं लगाना पड़ता है उसी क्षेत्र एवं भावना में स्थिर हो जाता है तो ध्यान, इसमें जिसका ध्यान किया जाता है वह परमात्मा, जो ध्यान करता है आत्मा और जिससे ध्यान करते हैं वह मन तीनों विद्यमान रहते हैं परन्तु जब केवल परमात्मा ही के आनन्द स्वरूप ज्ञान में आत्मा मग्न हो जाता है; तो वहाँ तीनों का कोई भेदभाव नहीं रहता है तो इसे समाधि कहते हैं।

इसके आगे समाधि की उच्चतर भूमियाँ, आत्मा—परमात्मसाक्षात्कार एवं संस्कार दग्धबीज आदि की स्थितियाँ होती हैं।

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