‘ऋग्भिस्तु०’ ऋग्वेद में सब पदार्थों के गुणों का प्रकाश किया है, जिससे उन में प्रीति बढ़कर उपकार लेने का ज्ञान प्राप्त हो सके । क्योंकि विना प्रत्यक्ष ज्ञान के संस्कार और प्रवृत्ति का आरम्भ नहीं हो सकता, और आरम्भ के विना यह मनुष्यजन्म व्यर्थ ही चला जाता है । इसलिये ऋग्वेद की गणना प्रथम ही की है । तथा यजुर्वेद में क्रियाकाण्ड का विधान लिखा है, सो ज्ञान के पश्चात् ही कर्त्रा की प्रवृत्ति यथावत् हो सकती है । क्योंकि जैसा ऋग्वेद में गुणों का कथन किया है, वैसा ही यजुर्वेद में अनेक विद्याओं के ठीक ठीक विचार करने से संसार में व्यवहारी पदार्थों से उपयोग सिद्ध करना होता है । जिनसे लोगों को नाना प्रकार का सुख मिले । क्योंकि जबतक कोई क्रिया विधिपूर्वक न की जाय, तबतक उसका अच्छी प्रकार भेद नहीं खुल सकता । इसलिये जैसा कुछ जानना वा कहना वैसा ही करना भी चाहिए, तभी ज्ञान का फल और ज्ञानी की शोभा होती है । तथा यह भी जानना आवश्यक है कि जगत् का उपकार मुख्य करके दो ही प्रकार का होता है, एक-आत्मा और दूसरा-शरीर का । अर्थात् विद्यादान से आत्मा, और श्रेष्ठ नियमों से उत्तम पदार्थोंकी की प्राप्ति करके शरीर का उपकार होता है । इसलिये ईश्वर ने ऋग्वेदादि का उपदेश किया है कि जिन से मनुष्य लोग ज्ञान और क्रियाकाण्ड को पूर्ण रीति से जान लेवें । तथा सामवेद से ज्ञान और आनन्द की उन्नति, और अथर्ववेद से सर्व संशयों की निवृत्ति होती है, इसलिये इनके चार विभाग किये हैं ।
प्र०-प्रथम ऋग्‚ दूसरा यजुः‚ तीसरा साम और चौथा अथर्ववेद इस क्रम से चार वेद क्यों गिने हैं ?
उ०-जब तक गुण और गुणी का ज्ञान मनुष्य को नहीं होता तब पर्यन्त उनमें प्रीति से प्रवृत्ति नहीं हो सकती‚ और इसके विना शुद्ध क्रियादि के अभाव से मनुष्यों को सुख भी नहीं हो सकता था‚ इसलिये वेदों के चार विभाग किये हैं कि जिस से प्रवृत्ति हो सके । क्योंकि जैसे इस गुणज्ञान विद्या को जनाने से पहले ऋग्वेद की गणना योग्य है‚ वैसे ही पदार्थों के गुणज्ञान के अनन्तर क्रियारूप उपकार करके सब जगत् का अच्छी प्रकार से हित भी सिद्ध हो सके‚ इस विद्या के जनाने के लिये यजुर्वेद की गिनती दूसरी बार की है । ऐसे ही ज्ञान‚ कर्म और उपासनाकाण्ड की वृद्धि वा फल कितना और कहां तक होना चाहिये‚ इस का विधान सामवेद में लिखा है‚ इसलिये उस को तीसरा गिना है । ऐसे ही तीन वेदों में जो जो विद्या हैं‚ उन सब के शेष भाग की पूर्ति-विधान‚ सब विद्याओं की रक्षा और संशय निवृत्ति के लिये अथर्ववेद को चौथा गिना है । सो गुणज्ञान‚क्रियाविज्ञान‚ इन की उन्नति तथा रक्षा को पूर्वापर क्रम से जान लेना । अर्थात् ज्ञानकाण्ड के लिये ऋग्वेद‚ क्रियाकाण्ड के लिए यजुर्वेद‚ इन की उन्नति के लिए सामवेद और शेष अन्य रक्षाओं के प्रकाश करने के लिये अथर्ववेद की प्रथम‚ दूसरी‚ तीसरी और चौथी करके संख्या बांधी है । क्योंकि ( ऋच स्तुतौ ) ( यज देवपूजा संगतिकरणदानेषु ) (षो अन्तकर्मणि) और ( साम सान्त्वप्रयोगे ) (थर्वतिश्चरतिकर्मा ) इन अर्थों के विद्यमान होने से चार वेदों अर्थात् ऋग्‚ यजुः‚ साम और अथर्व की ये चार संज्ञा रक्खी हैं तथा अथर्ववेद का प्रकाश ईश्वर ने इसलिये किया है कि जिस से तीनों वेदों की अनेक विद्याओं के सब विघ्नों का निवारण और उन की गणना अच्छी प्रकार से हो सके ।